मूर्ख साधू की कहानी

                   

                 


 किसी समय देव शर्मा नाम का साधू था। उसने अपने शिष्यों और महात्मा पुरुषों के दिये गये कपड़ों को बेचकर बहुत सारा धन इकट्ठा कर लिया। जैसे-जैसे वर्ष बीतते गये उसे अपने बढ़ते हुये धन को सुरक्षित रखने की चिन्ता सताने लगी। क्योंकि उसे किसी पर भी विश्वास नहीं था, इसलिये वह अपने सारे धन को एक थैले में भरता जाता और जहां भी जाता उसे अपने साथ ले जाता।



आषाढ़भूति नाम का एक चोर यह देख रहा था कि देव शर्मा हमेशा ही अपने थैले को अपने साथ रखता है। इसलिये उसे लगा कि इस थैले में जरूर कोई मूल्यवान चीज है और उसने किसी भी तरह उस थैले को चुराने की योजना बनाई। उसने सोचा, मैं अवश्य ही इस आदमी का विश्वास जीत लूंगा और इसे धोखा देकर इसका सारा धन ले लूंगा।




 तब वह देव शर्मा के पास गया और उससे विनती करते हुए बोला - "हे पवित्र साधु, मैं एक अनाथ हूं। कृपया मुझे अपना शिष्य स्वीकार कीजिये। मैं आपको वचन देता हूं कि मरते दम तक मैं आपकी सेवा करूंगा।












देवशर्मा बोला- "मैं तुम्हारी शिष्टता से प्रसन्न हुआ। तुम मेरे शिष्य बन सकते हो। लेकिन तुम कभी भी मेरे कमरे में नहीं आना।



आषाढ़भूति ने उनकी शर्त मान ली और थोड़े दिनों में ही वह देव शर्मा का विश्वसनीय शिष्य बन गया।


एक दिन देव शर्मा और आषाढ़भूति जंगल से जा रहे थे। रास्ते में देवशर्मा के कपड़े गन्दे हो गये और सूखी घास उसमें फंस गई। आषाढ़भूति ने इस मौके का लाभ उठाया और बोला "मुझे माफ करें गुरूजी, यह घास जो आपके कपड़ों पर है, यह आपकी नहीं है। यह तो उस व्यक्ति की है, जिसके साथ हम रुके थे। हमें यह उसको लौटा देनी चाहिये।





 देव शर्मा उसकी सच्चाई पर चकित होकर बोला - "मेरे बेटे जो तुम कह रहे हो वह सच है। यह इसके मालिक को लौटानी ही चाहिये।" आषाढ़भूति घास उसके मालिक को लौटाने के बहाने वहां से चला गया और कुछ ही देर में लौट कर बोला - "गुरूजी मैं उसे घास लौटा आया।




देव शर्मा बोला - "बेटा, यह तुमने बहुत अच्छा किया।" उसने सोचा, यह आदमी बहुत ईमानदार है। मुझे बहुत संतोष है कि यह मेरा धन नहीं चुरायेगा।




एक दिन देव शर्मा को उसके एक पुराने शिष्य ने आमंत्रित किया। देवशर्मा उसके घर जाने के लिए आषाढ़भूति के साथ चल पड़ा



 रास्ते में एक नदी मिली। देव शर्मा ने आषाढ़भूति से कहा - "बेटा, मैं नदी में नहाना चाहता हूं। मेरे कपड़ों और थैले की देखभाल करना।" यह कहकर वह नदी में नहाने चला गया।



 जैसे ही देव शर्मा वहां से गया, आषाढ़भूति ने कहा- हूं, अब मेरी बारी है।" उसने तुरन्त देव शर्मा के धन का थैला उठाया और वहां से चला गया।




जब देव शर्मा नहाकर नदी के किनारे लौटा, वहां उसे अपने थैले के साथ आषाढ़भूति भी नहीं दिखाई दिया। उसने अपने शिष्य आषाढ़भूति को पुकारा, "आषाढ़भूति.. ओ आषाढ़भूति.. तुम कहां हो?" जब उसे कोई उत्तर नहीं मिला तब उसे यह पता चला कि वह लुट गया है। वह चिल्लाने लगा, "ओ नहीं.. मैं लुट गया! ओह-ओह मेरा सारा धन लुट गया।"



शिक्षाः लालची अन्त में लुट ही जाता है।






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