Bharthari Baba
भर्तृहरि बाबा का मंदिर अलवर शहर से लगभग 35 किमी दूरी पर प्रसिद्ध सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान के एक छोर पर स्थित है और ये अलवर के सबसे प्राचीन पवित्र स्थलों में से एक है। मंदिर का नाम भरत (उज्जैन का शासक) के नाम पर रखा गया है। मंदिर पारंपरिक राजस्थानी शैली में विस्तृत दीर्घाओं, शिखर और मंडपों के पुष्प डिजाइन किए गए स्तंभों के साथ बनाया गया है। यहाँ मंदिर आस्था और शांति का महत्वपूर्ण केंद्र बिंदु है यह पर सभी जाति वर्गो के लोग आते हैं और उनकी मनोकामना भी पूरी होती है ये मंदिर अलवर में बड़ा ऐतिहासिक महत्व रखता है।
भर्तृहरि मंदिर तीन दिशाओं से पहाड़ियों से घिरा होने के कारण श्रधालुयो के लिए और अधिक लोकप्रिय बन जाता है। पहाड़ियों पर झरने के साथ स्थित भर्तृहरि मंदिर, मन को शांत करने के लिए अलवर एक आदर्श स्थान है। जहा मंदिर के अनुयायी राजस्थान के कोने-कोने से आते हैं। तो अगर आप अपनी देनिक परेशानियों को भूलकर आस्था और शांति का अनुभव करना चाहते है तो भर्तृहरि बाबा का मंदिर आपके लिए एक आदर्श स्थान हो सकता है।
बाबा भर्तृहरि के बारे में कहावतें ।
एक किंवदन्ती के अनुसार कविहृदय भर्तृहरि शकारि विक्रमादित्य के बड़े भाई थे। इसकी पिङ्गला नामक रूपवती पत्नी थी जिसे भर्तृहरि अत्यधिक प्रेम करते थे। एक बार राजसभा में एक योगी आया और राजा भर्तृहरि को एक फल दिया जिसे खाने से राजा को चिरयौवन और अमरत्व मिल जाता। किन्तु राजा ने वह फल स्वयं न खाकर अपनी प्रिया पत्नी को दे दिया जिससे वह सदा युवती रहे और अमर हो जाए। रानी पिङ्गला मन ही मन शहर के कोतवाल से प्यार करती थी। अतः उसने वह फल शहर कोतवाल को सौंप दिया। स्वयं शहर कोतवाल नगर की एक रूपवती वेश्या पर आसक्त था। उसने वह फल उस गणिका को दे दिया तथा उस फल के गुण को भी स्पष्ट कर दिया। वेश्या ने सोचा कि ‘यह फल खाकर सदा सर्वदा के लिए यह घृणित और तिरस्कृत जीवन नहीं बिताना है। नगर का राजा गुणी, न्यायप्रिय, धर्मात्मा तथा कोमलहृदय है। ऐसे राजा को यह फल देने से सारे नगर का उपकार होगा।’ तब प्रातःकाल वेश्या ने राजसभा में जाकर वह फल राजा भर्तृहरि को अर्पित कर दिया। पुनः वह फल पाकर राजा आश्चर्यचकित हो गए और उन्होंने सम्पूर्ण रहस्य का पता लगा लिया। आसक्ति की प्रबलता, स्त्री का कपट और प्रेम की निस्सारता को जानकर भर्तृहरि को वैराग्य हो गया और छोटे भाई विक्रमादित्य को राज्य भार सौंप कर उन्होंने वन की राह ली। इस कथा की सत्यता के पक्षधर भर्तृहरि के ही एक श्लोक को प्रमाण के रूप में उद्धृत करते हैं—
यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः। अस्मत्कृते च परिशुष्यति काचिदन्या धिक्तां च तं मदनं च इमां च मां च।।
‘मैं निरन्तर जिसका चिन्तन करता हूँ वह मुझसे विरक्त है। वह (मेरी प्रिया) किसी अन्य पुरुष की कामना करती है (किन्तु) वह पुरुष किसी अन्य स्त्री में आसक्त है। एक और कोई स्त्री मेरे (प्रेम के) लिए दुखी होती है। उस स्त्री, कामदेव, मुझे और अन्य स्त्री-सभी को धिक्कार है।’ Source :- नीति शतक
(२) दूसरी कथा पहली कथा के उल्टी है। रानी पिंगला पति से बेहद प्रेम करती है। राजा भर्तृहरि एक बार शिकार खेलने गए थे। उन्होंने वहाँ देखा कि एक पत्नी ने अपने मृत पति की चिता में कूद कर अपने प्राण त्याग दिए। राजा भर्तृहरि बहुत ही आश्चर्यचकित हुए और सोचने लगे कि क्या मेरी रानी भी मुझसे इतना प्यार करती है। अपने महल में वापस आकर राजा भरथरी जब ये घटना रानी पिंगला से कहते हैं तो पिंगला कहती है कि वह तो यह समाचार सुनने से ही मर जाएगी। चिता में कूदने के लिए भी वह जीवित नहीं रहेगी। राजा भर्तृहरि सोचते हैं कि वे रानी पिंगला की परीक्षा लेकर देखेंगे कि ये बात सच है या नहीं। फिर से भर्तृहरि शिकार खेलने जाते हैं और वहाँ से समाचार भेजते हैं कि राजा भर्तृहरि की मृत्यु हो गई। ये खबर सुनते ही रानी पिंगला मर जाती है। राजा भर्तृहरि बिल्कुल टूट जाते है, अपने आप को दोषी ठहराते हैं और विलाप करते हैं। इस बात से भर्तृहरि दुःखी हो कर अपना राज पाठ छोड़ मन की शान्ति के लिए राज्य से बहुत दूर चले जाते है और जब भर्तृहरि घूमता हुआ भटकता हुआ बाबा गोरखनाथ से मिलता है और अपनी दुविधा बताता और भर्तृहरि बाबा गोरखनाथ से कुछ प्रश्न पूछता है और बाबा भर्तृहरि को बाबा गोरखनाथ ने सभी प्रश्नों के उत्तर देता है और उसकी कृपा से रानी पिंगला जीवित हो जाती है और इस घटना के बाद राजा भर्तृहरि गोरखनाथ के शिष्य बनकर चले जाते हैं।
बाबा गोरखनाथ कोन थे ?
बाबा गोरखनाथ, बाबा मत्सेंद्र नाथ के शिष्य थे बाबा मत्स्येंद्र नाथ ने नाथ संप्रदाय की स्थापना की थी की ओर ये एक सिद्धी प्राप्त बाबा थे बाबा मत्स्येंद्र नाथ ने 9 वी 10 वी शताब्दी में नाथ संप्रदाय की नीव रखी थी । बाबा मत्स्येंद्र नाथ बौद्ध धर्म के वज्रयान शाखा के योगी) में से एक थे। वो गोरखनाथ के गुरु थे जिनके साथ उन्होंने हठयोग विद्यालय की स्थापना की। उन्हें संस्कृत में हठयोग की प्रारम्भिक रचनाओं में से एक कौलजणाननिर्णय के लेखक माना जाता है। (सोर्स:- Lucent book) baba मत्स्येंद्र नाथ को अपने सभी शिष्यों में गोरखनाथ सक्षम मानते थे इसलिए बाबा गोरखनाथ को नाथ संप्रदाय को आगे बढ़ाने का काम सोपा था ।
बाद में बाबा गोरखनाथ ने अपना अंतिम समय ज्वालादेवी के स्थान से परिभ्रमण करते हुए 'गोरक्षनाथ जी' ने आकर भगवती राप्ती के तटवर्ती क्षेत्र में तपस्या की थी और उसी स्थान पर अपनी दिव्य समाधि लगाई थी, जहाँ वर्तमान में 'श्री गोरखनाथ मंदिर स्थित है। और बाबा गोरखनाथ के नाम पर ही इस जगह का नाम गोरखपुर रखा गया ।
नाथ सम्प्रदाय में योगिनियों का भी समावेश था। 16 वीं शताब्दी की इस चित्रकला में एक नाथ योगिनी का चित्रण है।
भर्तृहरि बाबा का इतिहास :
भर्तृहरि बाबा का जन्म चाकसू जयपुर का बताया जाता है। उसके बाद यहा की प्रस्थिति उनके अनुकूल नहीं रहीं जिसके बाद भर्तृहरि की मां भर्तृहरि को और उसके 3 भाई बहनों को लेकर उज्जैन चले गए ।
उज्जैन में भर्तृहरि ने कही सालो तक शासन किया और उज्जैन की जनता को प्यार और स्नेह दिया इसी दौरान भर्तृहरि ने श्रंगार शतक और नीति शतक की रचना की कुछ समय शासन करने के बाद भर्तृहरि को वैराग्य हो गया और अपना राज पाठ छोटे भाई को देकर कर वन में भक्ति करने चला गया । और उसके बाद भर्तृहरि ने वही पर वैराग्य शतक की रचना की ।और अपनी भक्ति साधना में लीन हो गए ।
भर्तृहरि कृत 3 शतक कौनसे है ?
1. श्रंगार शतक: भर्तृहरि ने इस शतक की रचना सम्भवतः अपनी युवावस्था में ही की थी। लगभग सारे ही श्लोकों में स्त्री सौन्दर्य, काम की प्रबलता, स्त्री की विभ्रम चेष्टाओं के प्रति पुरुष-मन का आकर्षण, स्त्री पुरुष सङ्ग, युवावस्था ही सारे अनर्थों की आयु, विरागी पण्डितों का चित्त भी स्त्री रूप के कारण चञ्चल, स्त्री प्रत्यक्ष में अमृत किन्तु परोक्ष में विष, नारीसुख क्षणभङ्गुर आदि विषयों का अत्यन्त श्रंगार वर्णन किया है किन्तु अन्त में यह भी प्रतिपादित किया है कि शिवचरणों में निष्कपट भक्ति से ही सुगति प्राप्त होती है।
2. वैराग्य शतक :- जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इस शतक में भक्ति, तथा वैराग्य का प्रतिपादन हुआ है। आशा तृष्णा की प्रबलता, अविवेकी कर्म, विषयभोगों के त्याग में ही वास्तविक सुख, मिथ्या ज्ञान, काल की प्रबलता एवं महिमा, संसार की क्षणभङ्गुरता आदि को स्पष्ट किया गया है। भर्तृहरि ने धैर्य तथा समाधि की आवश्यकता तथा सन्तोष के प्रभाव का सुन्दर वर्णन किया है। ‘सन्तोषी सदा सुखी’ कहावत को स्पष्ट करता हुआ वैराग्यशतक का निम्नांकित श्लोक अत्यन्त लोकप्रिय तथा प्रभावी रहा है-
वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं दुकूलै सममिह परितोषो निर्विशेषो विशेषः। स तु भवति दरिद्री यस्य तृष्णा विशाला मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः।।
इसके साथ ही इस शतक में वृद्धावस्था में मनुष्य की दुर्गति, अभिमान/ अहंकार, के त्याग से ही अन्तःकरण पर वश सम्भव आदि विषय भी वर्णित है। शतक के अन्त में भर्तृहरि ने यही कामना व्यक्त की है कि समदर्शी होकर वन में शिव-शिव जपते हुए ही दिन व्यतीत हो जाएँ तो अच्छा है।
3. नीतिशतक- सरस भाषा शैली, कथ्य की सुश्लिष्टता तथा सुन्दर कवित्व की दृष्टि से यह शतक अद्वितीय है। प्रत्येक श्लोक मे गहन अनुभव तथा शास्त्राज्ञान मानो सजीव हो उठता है। इनमें आचार शिक्षा, नीति शिक्षा, कर्त्तव्या-कर्त्तव्य वर्णन, परोपकार तथा सत्सङ्गति की उपादेयता, विद्या के उत्कृष्ट गुण, भाग्य की प्रबलता तथा अनुलंघ्यता, दुर्जन निन्दा तथा सज्जन प्रशंसा, मूर्खता का निराकरण असम्भव, अविवेकी का अवश्यम्भावी पतन, विष्णु भक्ति से सर्वसिद्धियाँ प्राप्त होना सम्भव, सत्पुरुषों का अधिकार व्रत आदि लोकोपयोगी विषय ग्रहण किए गए हैं। इसकी लोकप्रियता इसी से सिद्ध है कि इस शतक के अनेक श्लोकांश सूक्ति तथा लोकोक्ति रूप में बहुशः प्रयुक्त होते हैं यथा-
विभूषणं मौनमपण्डितानाम्। मूर्खस्य नास्त्यौषधम्। विद्याविहीनः पशुः। सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति। शीलं परं भूषणम्; आदि।
वस्तुतः भर्तृहरि इस शतक में उन जीवनमूल्यों को ग्रहण करने के प्रति आग्रह करते हैं जिनसे परिवार, समाज, देश- सभी का कल्याण सम्पन्न होता है। सुन्दर मानवदेह पाकर और कर्मभूमि में जन्म लेकर भी जो अभागा सद्गुणों का सञ्चय नहीं करता वह मानों वैदूर्य मणि की पतीली में चन्दन की आग से लहसुन पकाता है अथवा आक की जड़ पाने के लिए सोने के हल से भूमि खोदता है अथवा कोदों को क्यारी के चारों ओर कपूर के टुकड़ों से बाड़ बनाता है (श्लोक संख्या 94)
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केयूराणि न भूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालकृता मूर्धजाः। वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्।।
मानव जीवन में सत्य, अहिंसा, परोपकार, क्षमा, इन्दि्रयनिग्रह, अक्रोध आदि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा आदर्श है किन्तु लौकिक धरातल पर धन का महत्त्व सर्वग्रासी है। सारे ही विद्वान/ शास्त्र धन की भरपूर निन्दा करते हैं; फिर भी मानव जीवन और समाज में धन की लिप्सा और महत्त्व कभी भी कम नहीं होता। जिसके पास धन है, वही समाज में सर्वगुणसम्पन्न माना जाता है- वही सर्वश्रेष्ठ है।
भर्तृहरि बाबा का स्थानीय महत्व ।
वर्तमान समय में भर्तृहरि बाबा महत्व जन जन में बहुत बड़ गया है आज के समय में पूर्वी राजस्थान में हर 4,5, गांव में एक bharthri बाबा का छोटा मंदिर मिल जाता है वो इस बात का सबूत है कि जन जन में बाबा के प्रति अटूट आस्था है और जो बाबा के मंदिर पर जो भी मनोकामना ने कर आता है उसकी मनोकामना पूरी होती है।
एक ऐसा ही बाबा मंदिर राजाथान के दौसा जिला के रामगढ़ पचवारा से जयपुर रोड पर 3 किलोमीटर दूर एक छोटे से गांव बिछा में एक छोटा सा मंदिर है। जहां पर बिच्छू, सर्प, गोयरा, (Common Indian Monitor, Monitor Lizard, Bengal Monitor, Bengal Lizard ) आदि गोयरा के है. इसका वैज्ञानिक नाम Varanus salvator. है।
स्थानीय लोगो का कहना है की उपरोक्त के कटने या डंक से जो विस व्यक्ति में आ जाता है उसका भी इलाज किया जाता है वो भी बिलकुल फ्री में ।
भर्तृहरि मन्दिर बीछा |
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