आज हम आपको भर्तृहरि कृत नीति शास्त्र के कुछ श्लोक के बारे में बताएंगे ।
प्रसह्य मणिमुद्धरेन्मकरवक्त्रदंष्ट्रान्तरा त्समुद्रमपि सन्तरेत्प्रचलदूर्मिमालाकुलम्। भुजङ्गमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद् धारये न्न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत्।। 4।।
अनुवाद- मगरमच्छ के मुख की दाढ़ों के बीच से रत्न को बलपूर्वक भले ही निकाला जा सके; चञ्चल लहर समूहों से आकुल बने समुद्र को भी तैरकर पार किया जा सके; अत्यन्त कु्रुद्ध सर्प को फूल की भाँति सर पर धारण करना सहज है; किन्तु मूर्ख जन के अव्यवस्थित चित्त की आराधना नहीं जा सकती। व्याख्या- मूर्खता मानव जीवन के लिए बहुत बड़ा अभिशाप है। एक और विडम्बना है कि मूर्ख जन प्रायः ही अपनी मूर्खता को नहीं समझता, अतः उसको कुछ भी समझाना या प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन है। संसार में अनेकानेक कार्य ऐसे हैं जो अत्यन्त कठिन हैं- जिनको करने में प्राणान्त होने तक की सम्भावना प्रबल होती है। मगरमच्छ के तीखे दाँतों की पँक्ति मानों लम्बी आरी की भाँति होती है जिसमें हर वस्तु खण्ड खण्ड हो जाए। ऐसे दाँतों से मणि निकाल पाने का साहस विरला ही करेगा। इसी प्रकार ऊँची ऊँची थपेड़ें मारती लहरों को प्रचण्ड बने सागर को तैर कर पार करना अत्यन्त साहसिक कार्य है। साँप को देखने मात्र से प्रत्येक जन भयभीत होता है। फिर अगर सर्प क्रुद्ध हो तो कहना ही क्या? ऐसे साँप को अपने सिर पर कौन धरण करना चाहेगा? फिर भी उपर्युक्त तीनों ही कार्य कठिन नहीं लगते यदि किसी दुराग्रही मूर्ख की हठवादिता को दूर करने जैसा कार्य सम्मुख हो। वस्तुतः किसी भी मूर्ख को उसकी अव्यवस्थित विचारधारा से हटा पाना अत्यन्त कठिन है। भाव यह है कि मनुष्य कठिन से कठिन कार्यै करने का साहस कर लेता है और सफलता भी प्राप्त करता है किन्तु मूर्ख से हठ को अथवारा दुराग्रह को हटा पाना/ दूर कर सकना सम्भव नहीं है। भगवान् न करे कि कभी किसी मूर्ख व्यक्ति को समझाने जैसा व्यर्थ कार्य करना पड़े। ऐसे मूर्खों के सम्मुख प्रत्येक सुभाषित अथवा नीतिवचन निरर्थक ही रह जाते हैं।
यदा किञ्जि्ज्ञज्ञोऽहं गज इव मदान्धः समभवं तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः। यदा किञ्चित्किञ्चिद्बुधजनसकाशादवगतं तथा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः।। 8।
अनुवाद- जब तनिक सा ज्ञान प्राप् त करके मैं हाथी के समान मदमत्त हुआ। तब ‘मैं सर्वज्ञ हूँ’— ऐसा सोच कर मेरा मन अहंकार से परिपूरित हो गया। किन्तु जब मैंने विद्वानों की समीपता से कुछ कुछ ज्ञान प्राप्त किया, तब ‘मैं मूर्ख हूँ’— यह जानकर मेरा सारा अहंकार ज्वर की भाँति उतर गया। यह पद्य मानो कोई विवेकी जन बुद्धि-ज्ञान-अहंकार के सम्बन्ध में यथार्थ कथन कर रहा है। जब मैं नितान्त अल्पज्ञ था, तब मैंने अपने आपको सर्वज्ञ मान लिया और अपने अहंकार में फूलकर मैं मानो मदमत्त हाथी के सदृश हो गया। किन्तु जब विद्वानों की संगति हुई तब मैंने समझा कि मुझे तो कुछ आता ही नहीं, मैं तो निपट मूर्ख हूँ। यह भान होते ही मेरा सारा अहंकार उसी प्रकार नष्ट हो गया मानो चढ़ा हुआ ज्वर उतर गया हो। महाकवि भर्तृहरि ने नीतिशतक के तीसरे श्लोक में ही कहा था कि अल्पज्ञानी को समझा सकना ब्रह्मा के वश से भी बाहर होता है। वही भाव इस श्लोक में भी दूसरे रूप में प्रगट हुआ है। मनुष्य जब अल्पज्ञानी हो और वह अधिक ज्ञानार्जन का प्रयत्न भी करे तो क्रमशः उसके मन में अहंकार भर जाता है और वह अपने को सर्वज्ञ मान कर अभिमान में फूला फिरता है। अपने अल्पज्ञान का मद उस पर ज्वर के सदृश चढ़ जाता है। किन्तु मनुष्य जब विद्वानों की संगति में आता है, उनसे बात करता है, साथ उठता बैठता है, तब विद्वानों और ज्ञानियों के अध्ययन की गहनता से उसे समझ आ जाता है कि मैं अपने आपको सर्वज्ञ मानता था, पर मुझे तो वस्तुतः कुछ नहीं आता। मन में यह स्थिति स्पष्ट होते ही मनुष्य के मन-मस्तिष्क पर चढ़ा हुआ अहंकार का मद तुरन्त उतर जाता है। विद्या अथवा ज्ञान तो मनुष्य को विनम्र बना देता है- ‘विद्या ददाति विनयम्।’ इस श्लोक के माध्यम से भर्तृहरि ने दो नीति कथन किए हैं- एक-विद्वानों की संगति सदैव लाभकारी होती है। दूसरे ज्ञान से विनम्रता आती है और अहंकार नष्ट होता है। इस पद्य में शिखरिणी छन्द है।
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