श्रीमद्भागवत गीता ||Bhagwat geeta

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आज हम बात करेंगे श्रीमद्भागवत गीता की


 श्रीमद्भागवत गीता न केवल धर्म का उपदेश देती है, बल्कि जीवन जीने की कला भी सिखाती है। महाभारत के युद्ध के पहले अर्जुन और श्रीकृष्ण के संवाद लोगों के लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं। गीता के उपदेशों पर चलकर न केवल हम स्वयं का, बल्कि समाज का कल्याण भी कर सकते हैं। पौराणिक शास्त्र बताते हैं कि महाभारत के युद्ध में जब पांडवों और कौरवों की सेना आमने-सामने होती है तो अर्जुन अपने बुंधओं को देखकर विचलित हो जाते हैं। तब उनके सारथी बने श्रीकृष्ण उन्हें उपदेश देते हैं। ऐसे ही वर्तमान जीवन में उत्पन्न कठिनाईयों से लडऩे के लिए मनुष्य को अर्जुन की जगह और भगवान श्रीकृष्ण को अपना सारथी मानकर गीता में बताए ज्ञान की तरह आचरण करना चाहिए। इससे वह उन्नति की ओर अग्रसर होगा।





इस सिलसिले में हम आपको श्रीमद्भागवत गीता के कुछ श्लोकों के बारे में बताते है ।


अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ⁠। गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ⁠।⁠। 


श्रीभगवान् बोले—हे अर्जुन! तू न शोक करनेयोग्य मनुष्योंके लिये शोक करता है और पण्डितोंके-से वचनोंको कहता है; परंतु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं उनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते ⁠।⁠।⁠11।⁠। 




न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ⁠। न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ⁠।⁠। 


न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे ⁠।⁠।⁠12।⁠। 




देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ⁠। तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ⁠।⁠। 


जैसे जीवात्माकी इस देहमें बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीरकी प्राप्ति होती है; उस विषयमें धीर पुरुष मोहित नहीं होता ⁠।⁠।⁠13।⁠। 




मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ⁠। आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ⁠।⁠।


 हे कुन्तीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःखको देनेवाले इन्द्रिय और विषयोंके संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिये हे भारत! उनको तू सहन कर ⁠।⁠।⁠14।⁠। 




यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ⁠। समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ⁠।⁠। 


क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुखको समान समझनेवाले जिस धीर पुरुषको ये इन्द्रिय और विषयोंके संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्षके योग्य होता है ⁠।⁠।⁠15।⁠।




नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ⁠। उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ⁠।⁠।



असत् वस्तुकी तो सत्ता नहीं है और सत्‌का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनोंका ही तत्त्व तत्त्वज्ञानी पुरुषोंद्वारा देखा गया है ⁠।⁠।⁠16।⁠।




 अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ⁠। विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ⁠।⁠।


 नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्—दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश करनेमें कोई भी समर्थ नहीं है ⁠।⁠।⁠17।⁠। 





अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ⁠। अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ⁠।⁠।



 इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्माके ये सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं। इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर ⁠।⁠।⁠18।⁠।





 य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ⁠। उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ⁠।⁠। 


जो इस आत्माको मारनेवाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते; क्योंकि यह आत्मा वास्तवमें न तो किसीको मारता है और न किसीके द्वारा मारा जाता है ⁠।⁠।⁠19।⁠। 




न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ⁠। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे ⁠।⁠।


 यह आत्मा किसी कालमें भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है; शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता ⁠।⁠।⁠20।⁠।





 वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ⁠। कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ⁠।⁠। 


हे पृथापुत्र अर्जुन! जो पुरुष इस आत्माको नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है? ⁠।⁠।⁠21।⁠। 





वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ⁠। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-

न्यन्यानि संयाति नवानि देही ⁠।⁠। 


जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरोंको त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त होता है ⁠।⁠।⁠22।⁠। 




नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ⁠। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ⁠।⁠। 


इस आत्माको शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं भिगो सकता और वायु नहीं सुखा सकता ⁠।⁠।⁠23।⁠।




 अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ⁠। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ⁠।⁠। 


क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और निःसन्देह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहनेवाला और सनातन है ⁠।⁠।⁠24।




 अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ⁠। तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ⁠।⁠। 


यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस आत्माको उपर्युक्त प्रकारसे जानकर तू शोक करनेको योग्य नहीं है अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है ⁠।⁠।⁠25।⁠। 





अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ⁠। तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ⁠।⁠। 



किन्तु यदि तू इस आत्माको सदा जन्मनेवाला तथा सदा मरनेवाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करनेको योग्य नहीं है ⁠।⁠।⁠26।⁠।





 जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ⁠। तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ⁠।⁠। 


क्योंकि इस मान्यताके अनुसार जन्मे हुएकी मृत्यु निश्चित है और मरे हुएका जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपायवाले विषयमें तू शोक करनेको योग्य नहीं है ⁠।⁠।⁠२७⁠।⁠। 


अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ⁠। अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ⁠।⁠।


हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट थे और मरनेके बाद भी अप्रकट हो जानेवाले हैं, केवल बीचमें ही प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थितिमें क्या शोक करना है? ⁠।⁠।⁠27।⁠। 





आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन- माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ⁠। आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ⁠।⁠। 


कोई एक महापुरुष ही इस आत्माको आश्चर्यकी भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्त्वका आश्चर्यकी भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्यकी भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता ⁠।⁠।⁠28।⁠।





 देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ⁠। तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ⁠।⁠। 


हे अर्जुन! यह आत्मा सबके शरीरोंमें सदा ही अवध्य* है। इस कारण सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये तू शोक करनेके योग्य नहीं है ⁠।⁠।⁠30।⁠। 





स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ⁠। धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ⁠।⁠।


 तथा अपने धर्मको देखकर भी तू भय करनेयोग्य नहीं है अर्थात् तुझे भय नहीं करना चाहिये; क्योंकि क्षत्रियके लिये धर्मयुक्त युद्धसे बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है ⁠।⁠।⁠31।⁠।






 यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् ⁠। सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ⁠।⁠। 


हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्गके द्वाररूप इस प्रकारके युद्धको भाग्यवान् क्षत्रियलोग ही पाते हैं ⁠।⁠।⁠32।⁠।




 अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि ⁠। ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ⁠।⁠। 


किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्धको नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्तिको खोकर पापको प्राप्त होगा ⁠।⁠।⁠33।⁠। 


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अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ⁠। सम्भावितस्य चाकीर्ति- र्मरणादतिरिच्यते ⁠।⁠।


तथा सब लोग तेरी बहुत कालतक रहनेवाली अपकीर्तिका भी कथन करेंगे और माननीय पुरुषके लिये अपकीर्ति मरणसे भी बढ़कर है ⁠।⁠।⁠34।


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